. *तुम कहां हो अश्वत्थामा*
अध्याय - ४
(तुम कहां हो अश्वत्थामा)
भाग - २
हम जैसे ही अंदर की ओर जाने लगे तभी पीछे से आवाज आई
"ठहरो….. किले के अंदर जाना मना है।"
ये आवाज वहां के संरक्षक की थी।
हमने कारण पूछा तो उसने बताया कि
"अभी कुछ दिन पहले ही यहां एक दुर्घटना हो गई है जिसकी वजह से 4 लोग मर गए थे। तब से कलेक्टर के आदेशानुसार इस किले के मुख्य भाग को पर्यटकों के लिए बंद कर दिया गया है और किले का संरक्षण कार्य शुरू कर दिया गया है।"
हमारा दिमाग खराब हो गया। जिस किले के लिए हम इतनी दूर से आए, मैंने घरवालों के हाथ पांव जोड़े, संतोष ने ऑफिस से छुट्टी ली। इतना दूरी पैदल तय की। और अब सुनने में आ रहा है कि किला बंद है।
हम दोनों एक तरफ बैठ गए और विचार करने लगे कि अब क्या कर सकते हैं।
उधर अश्वत्थामा, मंदिर में मेरा इंतजार कर रहा होगा। यही सोच कर हमने एक बार और कोशिश करने की ठानी।
बहुत देर के अनुनय विनय के बाद वहां के अधिकारी बाबू जी का दिल पसीजा और वो हमें अपने साथ अंदर ले जाने के लिए राज़ी हो गए। कुछ ही देर में हम दोनों किले के अंदर थे। अब वो आगे आगे और हम पीछे पीछे। किला बहुत बड़ा था। सख्त आदेश था कि उनके बताए रास्ते के अलावा और कहीं नहीं जाना है। रास्ते में हमें 2 प्राकृतिक पानी के कुंड भी मिले। हालांकि ये प्राकृतिक थे लेकिन इसका नाम मामा भांजा कुंड था। नोटिस बोर्ड पर लिखी जानकारी के मुताबिक इसके अतिरिक्त यहां 8 तालाब और 14 कुंए और है। जिनमें से कुछ के नाम 'गंगा जमुना तालाब', 'बादाम तालाब' और 'रानी तालाब' हैं। एक तरफ कुछ खंडहर में परिवर्तित हो चुकी इमारत थी, जिसकी अब कुछ दीवारें ही शेष बचीं थी। दीवारों की बनावट से ही पता चल रहा था कि ये इमारत बहुत सारे एक जैसे कमरों का समूह थी। इस जगह को ब्रिटिश छावनी कहते हैं। जब ये किला अंग्रेजों के स्वामित्व में था तब ये जगह वहां पदस्थ सैनिकों के रुकने का स्थान थीं।
कुछ दूरी पर मस्जिद की ऊंची उठी हुई मीनार भी दिख रही थी। लेकिन हमें वहां जाने नहीं दिया गया। इसके अलावा सुना तो ये भी था कि किले पर एक चर्च और अंग्रेजों का कब्रिस्तान भी है लेकिन हमारे रास्ते में वो हमें दिखाई नहीं दिए। वो इसलिए क्योंकि किला लगभग 60 एकड़ में फैला हुआ था और हमें हर जगह जाने ही नहीं दिया गया। देख रेख के अभाव में पूरे किले पर वनस्पतियों ने अपना कब्जा जमा लिया था और रास्ते के नाम पर कुछ संकरी सी पगडंडियां थी जो भिन्न भिन्न दिशा में जा रही थी। रास्ते भर मेरी नज़रें चारों ओर घूम घूम कर अश्वत्थामा को ढूंढ रही थी लेकिन सिर्फ झाड़ियां, पेड़ों, घास और खंडहरों के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था।
कुछ देर बाद एक मंदिर हमारी आंखों के सामने था। ये महादेव शिव का वही पुराना मंदिर था, जहां अश्वत्थामा पूजा करने आता था। ये मंदिर काले पत्थरों का बना था और संरचना में दक्षिण भारतीय स्थापत्य शैली को प्रदर्शित कर रहा था। इस प्राचीन मंदिर का नाम गुप्तेश्वर महादेव मंदिर था। मंदिर किसने बनवाया, ये स्पष्ठ नहीं है लेकिन किले के बारे में जितने भी लिखित दस्तावेज हैं, सभी के अनुसार मंदिर शुरू से ही वहां उपस्थित था। ये सोच कर कि शायद अश्वत्थामा मंदिर में बैठ कर मेरा इंतजार कर रहा हो, मैं मंदिर की तरफ बड़ा। मंदिर सुनसान था। हमने कुछ देर वहां पर बैठना उचित समझा। कुछ देर हम बैठे रहे लेकिन कुछ छोटी गिलहरियों के और कुछ एक पक्षियों के अलावा कोई भी वहां नहीं आया। खैर… हम महादेव से मिल के ही चल दिए, वैसे वो भी मौन ही रहे, हमेशा की तरह। मंदिर के बाहर आ कर मैंने चारों तरफ नजरें घुमाई। किला बहुत बड़ा था। हम और थोड़ा और दूर तक जाना चाहते थे लेकिन और कहीं भी जाने की हमें सख्त मना थी। वो अधिकारी वैसे भी अपनी जिम्मेदारी पर हमें अंदर लाया था और इस के लिए हम इसके बहुत कृतज्ञ थे। कुछ ही देर में उसने हम को वापस जाने के लिए कहा क्योंकि किले के बाहर भीड़ बड़ने लगी थी और कोई हमें अंदर से निकलता हुआ देख लेता तो वो भी अंदर जाने की जिद करता। मैंने उससे कहा
"लेकिन अश्वत्थामा तो दिखा ही नहीं।"
"जब हमें 2 सालों से नहीं दिखा तो तुम्हें कहां से दिख जायेगा।" उसने हंसते हुए कहा। और हम सभी हसने लगे।
हम उसका धन्यवाद करके उसी पगडंडी पर वापस चल दिए। मेरी नज़रें अश्वत्थामा को पुकार रहीं थीं। वो शायद एक कोने में छुप के खड़ा हो कर हमें जाते हुए देख रहा होगा, जिस तरह वो हर दिन अन्य लोगों को देखता होगा। मेरी नजर में अश्वत्थामा एक रहस्य था और उसकी नजरों में मैं एक मामूली सा इंसान। अगर वो मुझे मिल भी जाता, तो उससे मिल कर मैं करता भी क्या?
शायद और सवाल पूछता।
कितने सवाल पूछता?
क्या सवालों का कोई अंत होता?
नहीं।
शायद इसीलिए वो सामने नहीं आ रहा था।
शायद मुझे पता भी था, कि वो नहीं आएगा।
कयोंकि वो ये जानता है कि रहस्य को रहस्यमय ही रहना चाहिए। जिस रहस्य के लिए ये किला मशहूर है उस रहस्य के बिना उस किले का क्या वजूद रह जायेगा।
किले के दरवाजे के बाहर निकले ही थे कि वहां बैठे संरक्षक ने कहा "जरा संभल कर जाना"। हम फिर से टेंशन में आ गए। कयोंकि हम जानते थे कि वो किस बारे में बात कर रहा है।
अब हम लौट रहे थे। आसमान में काले बादल घिर आए थे और पानी की हल्की हल्की फुहारें शुरू हो गई थीं। उतरने में और ज्यादा सावधानी की जरूरत पड़ रही थी। क्योंकि पानी की वजह से चट्टानों की ये सीढियां बहुत चिकनी हो गई थी। ऊपर से उस पर जमी हुई काई फिसलने के लिए 'सोने पर सुहागा' वाली कहावत को चरितार्थ कर रही थी। हमने सोचा था कि उतरने में ज्यादा समय नहीं लगेगा, लेकिन यहां तो हर एक पायदान रुक रुक कर उतरना पड़ रहा था। पांव रखने से पहले अधिक घर्षण वाली जगह का मुआयना किया जाता और फिर उस पर पांव जमा कर आगे बड़ा जाता था। अब हमें तेंदुए से कम और फिसलन से ज्यादा डर लग रहा था। वैसे भी तेंदुआ तो शायद भीगने से बचने के लिए किसी गुफा में घुस गया होगा। ऐसा मेरा मानना था। लेकिन अगर फिसल गए तो नीचे न जाने कितनी दूर जा के रुकेंगे। सर टकराने का डर अलग था। धीरे धीरे हम आखिरकार नीचे उतर आए। कुछ देर आराम किया।
क्रमशः........….
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