सौतेलेपन की संकीर्ण दीवार में दबी सिमरन की चीख"
लखनऊ की एक दर्दनाक घटना ने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया है। एमिटी यूनिवर्सिटी की मेधावी छात्रा, 19 वर्षीय सिमरन, जिसने भविष्य के अनगिनत सपने संजो रखे थे, वह अपने ही घर में, अपने ही सौतेले पिता की हैवानियत का शिकार बन गई। यह घटना न केवल घरेलू हिंसा की पराकाष्ठा को दर्शाती है, बल्कि हमारे सामाजिक सोच और महिला सुरक्षा पर भी बड़ा सवाल खड़ा करती है।
सिमरन की मां रेखा राजपूत ने बताया कि सोमवार देर शाम सिमरन अपने मोबाइल पर फोटो देख रही थी। इसी सामान्य-सी बात पर उसके सौतेले पिता विकास को शक हुआ कि वह किसी लड़के से बात कर रही है। शक ने गुस्से का ऐसा रूप धारण किया कि उसने सिमरन पर चाकुओं से बेरहमी से हमला कर दिया। जब मां ने बेटी को बचाने की कोशिश की, तो विकास ने उसे भी नहीं बख्शा और घायल कर दिया।
क्या यह केवल "शक" था? या एक पुरुषवादी सोच की परिणति? जहां एक लड़की का मोबाइल चलाना भी अपराध बन जाता है। जहां पिता के रिश्ते की गरिमा को एक हवस या हिंसा की सोच कुचल देती है। सिमरन की हत्या सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, एक उम्मीद, एक सपना, और एक पीढ़ी की आत्मा की हत्या है।
घटना यह भी दर्शाती है कि रेखा राजपूत की दूसरी शादी ही सिमरन की मौत की वजह बन गई। यह एक बड़ा सामाजिक प्रश्न है – क्या हम अपने बच्चों की सुरक्षा को नए रिश्तों में सही ढंग से सुनिश्चित कर पा रहे हैं? क्या केवल एक शक के आधार पर एक जान लेना इंसानियत का चेहरा है?
सिमरन जैसी बेटियां देश का भविष्य होती हैं। उनकी सुरक्षा केवल कानून का नहीं, समाज के हर व्यक्ति का कर्तव्य है। मगर जब अपराध घर के भीतर ही जन्म लेता है, तब न्याय की उम्मीद और भी मुश्किल हो जाती है।
आज जरूरी है कि सिमरन के लिए सिर्फ शोक न मनाया जाए, बल्कि इस सोच को बदला जाए जो एक लड़की की आज़ादी, उसकी दोस्ती, और उसके निर्णय को अपराध मानती है। सिमरन अब लौट नहीं सकती, लेकिन उसकी चीख एक बदलाव की पुकार बन सकती है – अगर समाज सुनना चाहे।
"सवाल ये नहीं है कि सिमरन क्यों मारी गई, सवाल ये है कि ऐसी सिमरनें हर घर में क्यों असुरक्षित हैं?"
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